SUMMARY
Masoor Dal Production : किसानों ने अनुमान लगाया है कि इस बार दाल का कटोरा खाली नहीं रहेगा.
लखीसराय: प्रदेश के निचले इलाके के हिस्से को ताल या टाल कहते हैं. टाल शब्द के साथ ही बड़हिया-मोकामा का यह बड़ा एरिया आंखों के सामने आ जाता है. इसकी विशेषताओं से प्रदेश और देश भलीभांति अवगत है. अपनी विशेषताओं के कारण ही 1064 वर्ग हेक्टेयर अर्थात करीब 1,06,200 हेक्टेयर में फैले इस एरिया को दाल का कटोरा कहलाने का गौरव प्राप्त है.
धरती के भगवान कहे जाने वाले हजारों किसानों की यह कर्मभूमि अर्थात टालक्षेत्र दलहन के अच्छे पैदावार के लिए जाना जाता है, जहां से निकलने वाली उच्च कोटि की दालों की पहुंच देश भर के बाजारों में है. बाजार के जानकार की मानें तो अकेला बड़हिया मोकामा का टालक्षेत्र अपनी पैदावार से पूरे प्रदेश की दाल की जरूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम है.
होली (Holi) के त्योहार बाद पूरी तरह से तैयार हो जाने वाली फसलें इस वर्ष काफी अच्छी है, जो अनुकूल मौसम और जल चक्र पर ही संभव है. हालांकि इस साल भी जल निकासी में हुए विलंब के कारण समय बाद ही बीजों की बुआई संभव हो सकी थी.
बेहतर उत्पादन के लिए न सिर्फ यहां की उपजाऊ भूमि बल्कि जल चक्र का भी बहुत बड़ा हाथ है. बरसात के मौसम में इस बड़े भूभाग का डूबना तथा महीने भर बाद जमे पानी के निकल जाने पर ही पैदावार निर्भर है.
टालक्षेत्र से होकर गुजरने वाली हरुहर नदी और इसके जल खेती के लिए वरदान भी हैं, और अभिशाप भी. जो उपयुक्त अथवा अनुपयुक्त समय पर होने वाले जलनिकासी पर निर्भर करता है. हालांकि कृत्रिम व तकनीकी रूप से जल निकासी को नियंत्रित करने में सहायक सुलिस गेट का निर्माण भी सरकारी स्तर पर जारी है. बता दें कि प्राकृतिक रूप से जल निकासी में सहायक विभिन्न मार्गों पर समय के साथ अतिक्रमण का बोलबाला रहा है.
जिस कारण धीरे धीरे टालक्षेत्र का गंगा से संपर्क भंग होता चला गया, जो वर्तमान दशक में विकट समस्याएं बनकर खेती और खेतिहर किसानों के लिए सरदर्द बन गई है. दलहन के पैदावार का यह टालक्षेत्र ना सिर्फ उन्नत दाल के लिए, बल्कि बेहतर रोजगार के लिए भी जाना जाता है.
विदित हो कि प्रतिवर्ष तैयार फसलों की कटाई के लिए पड़ोसी राज्य झारखंड समेत प्रदेश के विभिन्न जिलों से हजारों की संख्या में मजदूर टालक्षेत्र में पहुंचते हैं.
जिनके आगमन से पूरा टालक्षेत्र किसी कुंभ से कम प्रतीत नहीं होता. जो महीने भर का बेहतर रोजगार उपलब्ध कराता है. हजारों की संख्या में पहुंचने वाले मजदूर उचित मजदूरी के साथ ही साल भर की रसोई के लिए अपने साथ दाल लेकर विदा होते हैं. इन कामनाओं के साथ कि अगले वर्ष पुनः अच्छी पैदावार हो और उनका फिर से आना हो सके.
पूरी तरह प्रकृति पर आश्रित खेती में जुटे किसानों का हर पल आनंद और आशंकाओं के बीच ही गुजरता है. खेतों की तैयारी, जुताई, बुआई से लेकर अन्ततः फसलों की कटाई तक ही सिर्फ किसान चिंतित नहीं होते, बल्कि उन्नत पैदावार के बावजूद भी किसानों के चेहरे पर चिंताएं खत्म नहीं होती.
जिसके कारण हल्के विपरीत मौसम में भी फसलों का प्रभावित होना तथा लागत के अनुरूप पैदावार का मूल्य नहीं प्राप्त होना बताया जाता है.
बड़े किसानों में शामिल दिवाकर सिंह, संजीव कुमार, भोली सिंह, कालीचरण सिंह, दीपक सिंह, दिलीप सिंह, श्याम नंदन सिंह आदि बताते हैं कि जब तक तैयार फसलें घर तक नहीं आ जाती, मन आशंकित ही है. क्योंकि साल दर साल खेती जुआ सा प्रतीत हो रहा. सफलता और असफलता के बावजूद किसान अपने कर्म में लगे हुए हैं.